"नाव
कागज़ की सदा चलती नहीं, ज़ुल्म की टहनी कभी फलती नहीं"
पका
हुआ एक नासूर हुआ अलग, मज़ीद दो नासूर परेशान करने को तय्यार
नाज़रीन
आज का मज़मून सहाफी का सख्त तनक़ीद से भरा और मज़म्मत वाला है. आज का मज़मून दो हिस्सों पे मुश्तमिल है:-
१. वाजपाई
की बीजेपी जमुहरियाती हुकूमत बामुक़ाबिल मोदी की हूकूमशाही हुकूमत
२. मुस्लिम
मौलानाओं का पुलवामा पे एहतेजाज
पहले
हिस्से में हम तब्सिरा करेंगे वाजपाई की बीजपी हुकूमत की जो जमुहरियाती मालियात पे
यकीन रखती थी. कानून साज़ों की आवाज़ की इज़्ज़त
रखती थी. अवाम के हर तबके के लिए आज़ादाना माहौल फ़राहम था. क्योंकि वाजपाई एक तालीमी आफ़ता, दानिशमंद खुली सोच
रखने वाले वज़ीरे आज़म थे जो एक मुसन्निफ़ और शायर भी थे तो उनकी सोच में भी इंसानी हुकूक के तहफूज़
का जज़्बा था. दानिशमंदी थी सूझ बूझ थी, मसले की नज़ाकत को समझते थे, किसी भी काम को करने के लिए शिद्दतपसंदी, जब्र का सहारा नहीं लेते थे जो जमुहरियत के लिए ज़हर है, हूकूमशाही या तानाशाही हुकूमत में ठीक है. वही दूसरी तरफ मौजूदा दौर के
नए भारत के वज़ीरे अज़ाम एक ऐसी शख्सियत हैं जिनकी सोच अमल में जब्र, तशद्दुत, हूकूमशाही, तानाशाही नुमाया है. जिनको खून खराबा, मार काट, दहशतगर्दी खूब पसंद है जिसकी जीती जागती मिसाल है गुजरात
२००२ दहशतगर्दाना हमले जिसमे मुसलमानों की नस्ल कुशी की गई, हज़ारों को हलाक किया गया और लाखो बे घर हो गए. नए दौर के इस वज़ीरे आज़म की तालीम भी काफी शक और शुकूक
के घेरे में है. दानिशमंदी और सूझ बूझ तो आज
के भारत में बढ़ते हुए आलूद, मवाद और ज़हर से ही साबित हो जाती है की उनकी क्या ज़ेहनियत
होगी. फिर नए भारत में अदलिया, इंतेज़ामिया,
आर्मी और तहक़ीक़ाति इदारे (सी.बी.आई, एन.आई.ऐ.) वगेरा और सहाफत सब उनके हुकुम के गुलाम
हैं.
जिस
किसी ने उनकी हुकुम अदूली की उसके ऊपर इंतेज़ामिया का खौफ और दहशत तारी कर दी जाती है. जो फिर भी निडर और बे खौफ इन्साफ की आवाज़ के परचम
को बुलंद करता रहा और अलम्बरदार हुआ उसको मौत की आगोश में सुला दिया जाता है. चाहे वो अदलिया (सुप्रीम कोर्ट) का आला दर्जा हो
या सहाफत, या फिर मुख़लिफ़ीनों का वो तपका हो जो बोहोत ही सवाल जवाब तलब करता है.
हाल
ही में हुए पुलवामा हादसे में इस सहाफी की टीम को आला दर्जे की नाहीली और गफलत की जानकारी
मिली है. ये हादसा टाला जा सकता था लेकिन अपने
सियासी नफे और गफलत की वजह से उसको मज़ीद पेचीदा बनाया गया, अब मसले की बारीकी और नज़ाकत
को समझते हुए आंसू बहाने, एक्शन लेने का ठोंग किया जा रहा है. लेकिन ये सहाफी यकीन के साथ कह सकता है की असली
मुजरिम चाहे ज़मीन के सबसे निचले हिस्से में भी छुप जाए या आसमान की बुलंदियों पे पहुंच जाए बच नहीं सकता. बोहोत बड़ी गलती कर दी मुजरिम ने इसका उसको इन्दाज़ा
नहीं है, के वो क्या कर बैठा, इस बात का इन्दाज़ा उसको बाद में होगा. उसने जो करना था कर दिया अब वो आएगा सख्त सवाल जवाब
के घेरे में.
मज़मून
का दूसरा हिस्सा मुस्लिम मौलानाओं की उस जमात पे मुश्तमिल है जो अपने अकीदतमंदों मशायक़ीनों
और दिगर मुस्लिम अवाम के साथ इहतजाजी मुहीम का हिस्सा बन रहे हैं. और पकिस्तान के खिलाफ अश्तेआल अंगेज़ी कर रहे है
अज़हर मसूद को फ़ासी दो, पकिस्तान को तबाह कर दो जैसे नारे लगा रहे हैं. ये सहाफी एक दम कुंद हो गया है और समझने से क़ासिर
है की इस तरह की मोहीम कर के वो क्या साबित करना चाहतें हैं. और उनका हुकूमत से मुतालबा क्या है. अगर वो जंग चाहते हैं और पकिस्तान को तबाह करना चाहतें हैं, तो कुरान और हदीस की सख्त खिलाफ वर्ज़ी कर रहें हैं. क्योंकि अगर पकिस्तान को तबाह किया उसमे बे गुनाह
मुस्लिम भी मारे जायेगे. और क़ुरान क्या कहता है हदीस का मफूम क्या है इन मौलानाओं को
बेहतर समझ में आना चाहिए. दूसरी बात इन लोगों का दोहरा रवय्या साफ़ दिख के आ रहा है. ज़ुबान
पे कुछ और है दिल में कुछ और.
ठीक
है दिल में तशवीश है तकलीफ है तो क्या ऐसे एहतेजाजी मुज़ाहिरों से दिल की जलन कम होगी. फिर अगर ऐसे इहतजाजी मुज़ाहिरों से मरहूमीनों की रूहों
को सुकून पहुँचाना मकसद है तो उनके लिए इसाले सवाब काहे को नहीं करते. क्या इन मौलानाओं में इतनी कूव्वत और हिम्मत है
की सभी ४५ मरहूमीनों के लिए क़ुरान खानी का एहतेमाम कर सकें, उनकी गैबी नमाज़े जनाज़ा
अदा कर सकें, सभी ४५ मौतों पे बगैर अगर मगर और किसी भी तफ़रीक़ के जन्नतुल फिरदोस और
मग़फ़ेरत की दुआ कर सकें. और उनको रौज़ाए महशर
में आक़ा ए इनामदार के हाथों से जामे कोसर नसीब हो ऐसी दुआ कर सकें. अगर ऐसा कुछ भी नहीं कर सकते तो ए दिखावा काहे
को. ए सहाफी दुआ गो है अपने लिए भी और दीगर
मुस्लिम अवाम के लिए भी "या अल्लाह मेरा और सभी अकीदतमंदो का ज़ाहिर और बातिन एक
कर दे. या बातिन से ज़्यादा अच्छा ज़ाहिर कर
दे."
असल
बात तो ये है मौलाना इस हादसे के बाद ख़ौफ़ज़दा हो गए, और इंतेज़ामिया के सख्त दबाव में
आ गए. वही बात ये सहाफी अपने सभी मज़मूनों में
लिखता आया है. खौफ और तशद्दुत की सियासत करना
छोड़ो और किसी भी मसले पे सियासी नफा लेने की कोशिश मत करो. ऐसे ही हालात २००२ में पैदा
कर दिए थे, खौफ का वो अलाम था की कई मौलानाओं ने अपनी दाढ़ी मुड़वा ली थी. हक़ बयानी की किसी ने भी बात कही की फ़ौरन अंदर डाल
दिया जाता था. हक़ बयानी की बात करने वाले
सहाफिओं को गुजरात में दाखिल नहीं होने दिया जाता था बिल फ़र्ज़ कोई दाखिल हो गया तो
उसका कैमरा तोड़ दिया जाता था और उसको मारा पीटा जाता था. उस दौरान हक़गोई करने वाले
कई सहाफी हलाक कर दिए गए थे. और वही हालात
आज नए दौर के भारत के हैं.
किसी
भी सियासी जमात की ऐसे बयानात पे मजबूरी समझ में आती है लेकिन मज़हबी रहनुमाओं का ऐसा
अमल इस सहाफी के समझ से परे है जिसमे इस सहाफी को इनके ऊपर सिर्फ और सिर्फ हुकूमत का
बे पनाह दबाव, शिद्दत और दहशत दिखती है. क्योंकि
कोई भी मुसलमान अपने दुसरे मुस्लिम भाई के लिए बदगुमानी हरगिज़ नहीं रखेगा और ना ही
उसको किसी तीसरे से क़त्ल करने की साजिश का हिस्सा बनेगा. फिर ये लोग तो मज़हबी रहनुमा हैं इन लोगो से ऐसी
तवक़्क़ो ये सहाफी नहीं कर सकता था. फिर इनका
अमल क़ुरान और हदीस से एक दम उल्टा है.
खैर
इस सहाफी को अपने अमल पे नाज़ है के वो इन्तेज़ामियाँ की किसी भी ऐसी शिद्दत और दबाव
का हिस्सा और मोहरा नहीं बना और जो सब ने किया वो इस ने हरगिज़ नहीं किया. अब इन सब लोगों की जमात से ये सहाफी एक दम अलग दिख
रहा है, और इसने इन लोगो की शबाहत नहीं इख़्तेयार की. हाँ इसने अपने पास मौजूद ज़ारायों का फायदा उठाया
और तफ्तीश, जांच तहक़ीक़ात की और सही नताइज पे पंहुचा.
अगरचे
इसका दिल दुखा भी तो वो दिखाने की ज़रुरत नहीं है.
एहतेजाज करने या मोर्चा निकालने के पीछे एक मक़सद या मुतालबा होता है इन मौलानाओं
का हूकूमते हिन्द से क्या मुतालबा है. अगर
इस एहतेजाजी मोहीम में इनका मक़सद दिखावा करना था तो गलत है इन लोगो को भी बीजेपी और
संघी जैसा दिल में दर्द नहीं है बल्कि ये घड़याली आंसू सिर्फ और सिर्फ कोई ना कोई फायदे
के लिए बहाये जा रहे हैं. और अगर पाकिस्तान
पे हमला करने की इनकी मंशा थी तो ये लोग क़ुरान और हदीस की खुली खिलाफ वर्ज़ी कर रहे
हैं एक दारुल हर्ब से दारुल अमन के ऊपर हमले की साजिश का हिस्सा बन रहे हैं. और अगर कुछ भी इनका मकसद नहीं था तो जो दिल में
था वही ज़ुबान पे होना चाहिए.
आज
दीगर अवाम जंग की बात करता है क्योंकि उसका दिल दुखा है. संघी, बीजेपी और शिद्दतपसन्द हिन्दू उसको हवा देतें
हैं क्योंकि वो उस माहौल में अपना सियासी नफा देख रहे हैं. लेकिन अमन पसंद और मुस्लिम अवाम क्या सोचता है क्या
चाहता है इसकी कोई सहाफी रिपोर्टिंग करे की उनको इस मसले पे क्या जंग होना चाहिए या
बात चीत के ज़रिये मसले का हल होना चाहिए इसकी खबरदारी करे.
फ़ौजिओं
की शहादत पे मातम करना आंसू बहाना एहतेजाज करना मोर्चा निकालना सब ढोंग और दिखावा है.
किसी भी दानिशमंद या अवामी शख्सियात का ऐसा
करने के पीछे कुछ न कुछ मकसद और पोशीदा अजेंडा होता है. सियासी जमातों का मकसद अपना वोट बैंक मुस्तहकम करना
होता है. मज़हबी रहनुमाओं के ऊपर सियासी और इंतेज़ामिया दबाव होता है. लेकिन इस गहमा गहमी में कुछ लोग ऐसे भी होते हैं
जो शहीदों के विरसा से सच्ची हमदर्दी रखतें हैं और पोशीदा तरीके से बगैर किसी ताम झाम
मीडिया कवरेज के मदद कर देतें हैं और सख्त अलफ़ाज़ में हिदायत देतें हैं की हमारी इमदाद
या मदद को पोशीदा ही रहने देना और जग ज़ाहिर ना करना, वो होते हैं सच्चे हमदर्द. मीडिया के सामने आके दिखावा कर के कुछ भी काम किया
तो उसके पीछे की नियत और सूरत दोनों दिखाई दे रही हैं. और किसी भी काम को करने की नियत को अल्लाह और वो बंदा खूब जानता
है.